तुम्हारे ब'अद ख़ुदा जाने क्या हुआ दिल को
किसी से रब्त बढ़ाने का हौसला न हुआ
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कभी जिगर पे कभी दिल पे चोट पड़ती है
ग़म-गुसारो बहुत उदास हूँ मैं
कितने अंजान हैं क्या सादगी से पूछते हैं
आप ठहरे हैं तो ठहरा है निज़ाम-ए-आलम
ज़िंदगी किस तरह कटेगी 'सैफ़'
जिस दिन से भुला दिया है तू ने
क्यूँ उजड़ जाती है दिल की महफ़िल
पास आए तो और हो गए दूर
वो भी हमें सरगिराँ मिले हैं
दिल-ए-वीराँ को देखते क्या हो
तुम को बेगाने भी अपनाते हैं मैं जानता हूँ
तेरी आँखों में रंग-ए-मस्ती है