मिरी तलब में तकल्लुफ़ भी इंकिसार भी था
वो नुक्ता-संज था सब मेरे हस्ब-ए-हाल दिया
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ना-मुस्तजाब इतनी दुआएँ हुईं कि फिर
'सरशार' मैं ने इश्क़ के मअ'नी बदल दिए
क्या हुआ हम पे जो इस बज़्म में इल्ज़ाम रहे
ख़ल्वत-ए-ज़ात है और अंजुमन-आराई है
मिरे वजूद को उस ने अजब कमाल दिया
नींद टूटी है तो एहसास-ए-ज़ियाँ भी जागा
ख़याल हिज्र-ए-मुसलसल में आए हैं क्या क्या
मैं ने इबादतों को मोहब्बत बना दिया
इक हर्फ़-ए-शौक़ लब पे है और इल्तिजा के साथ
इश्क़ तक अपनी दस्तरस भी नहीं
शहर में जब भी ज़ुलेख़ा से ख़रीदार आए