आज भी शायद कोई फूलों का तोहफ़ा भेज दे
तितलियाँ मंडला रही हैं काँच के गुल-दान पर
Rahat Indori
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Allama Iqbal
Anwar Masood
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मुझे गिरना है तो मैं अपने ही क़दमों में गिरूँ
जब तक ग़म-ए-जहाँ के हवाले हुए नहीं
मुझ से मिलने शब-ए-ग़म और तो कौन आएगा
क्या जानिए मंज़िल है कहाँ जाते हैं किस सम्त
ग़म-ए-दिल हीता-ए-तहरीर में आता ही नहीं
तू ने कहा न था कि मैं कश्ती पे बोझ हूँ
एक अपना दिया जलाने को
वहाँ की रौशनियों ने भी ज़ुल्म ढाए बहुत
साथी
मल्बूस ख़ुश-नुमा हैं मगर जिस्म खोखले
ये जल्वा-गाह-ए-नाज़ तमाशाइयों से है
रात के पिछले पहर