आ के पत्थर तो मिरे सेहन में दो-चार गिरे
जितने उस पेड़ के फल थे पस-ए-दीवार गिरे
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अब आप रह-ए-दिल जो कुशादा नहीं रखते
आलम में जिस की धूम थी उस शाहकार पर
पर्दा-ए-शब की ओट में ज़ोहरा-जमाल खो गए
मल्बूस ख़ुश-नुमा हैं मगर जिस्म खोखले
साथी
गले मिला न कभी चाँद बख़्त ऐसा था
जहाँ तलक भी ये सहरा दिखाई देता है
गुरेज़-पा
उतर के नाव से भी कब सफ़र तमाम हुआ
ये जल्वा-गाह-ए-नाज़ तमाशाइयों से है
यूँ तो सारा चमन हमारा है
मीठे चश्मों से ख़ुनुक छाँव से दूर