मुझे भी लम्हा-ए-हिजरत ने कर दिया तक़्सीम
निगाह घर की तरफ़ है क़दम सफ़र की तरफ़
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हमारे दर्द की जानिब इशारा करती हैं
सुख़न किया जो ख़मोशी से शायरी जागी
हम ज़िंदगी-शनास थे सब से जुदा रहे
न कोई ख़्वाब न माज़ी ही मेरे हाल के पास
कब चला जाता है 'शहपर' कोई आ के सामने
दूसरों के ज़ख़्म बुन कर ओढ़ना आसाँ नहीं
बे-इंतिहा होना है तो इस ख़ाक के हो जाओ
दिल में शोला था सो आँखों में नमी बनता गया
होगी इस ढेर इमारत की कहानी कुछ तो
नसब ये है कि वो दुश्मन को कम-नसब न कहे
चुप गुज़र जाता हूँ हैरान भी हो जाता हूँ
हँसते हुए हुरूफ़ में जिस को अदा करूँ