मैं ने भी देखने की हद कर दी
वो भी तस्वीर से निकल आया
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हमारे दर्द की जानिब इशारा करती हैं
मस्लहत के ज़ावियों से किस क़दर अंजान है
नसब ये है कि वो दुश्मन को कम-नसब न कहे
नींद उजड़ी तो निगाहों में मनाज़िर क्या हैं
कब चला जाता है 'शहपर' कोई आ के सामने
फिर से वही हालात हैं इम्काँ भी वही है
बे-इंतिहा होना है तो इस ख़ाक के हो जाओ
न कोई ख़्वाब न माज़ी ही मेरे हाल के पास
ख़ुद को ख़ुद पर ही जो इफ़्शा कभी करना पड़ जाए
मेरी नज़र का मुद्दआ उस के सिवा कुछ भी नहीं
चुप गुज़र जाता हूँ हैरान भी हो जाता हूँ