दूसरों के ज़ख़्म बुन कर ओढ़ना आसाँ नहीं
सब क़बाएँ हेच हैं मेरी रिदा के सामने
Ahmad Faraz
Habib Jalib
Faiz Ahmad Faiz
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Jaun Eliya
Mir Taqi Mir
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Rahat Indori
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कोई साया न कोई हम-साया
मैं ने भी देखने की हद कर दी
नींद उजड़ी तो निगाहों में मनाज़िर क्या हैं
कब चला जाता है 'शहपर' कोई आ के सामने
मस्लहत के ज़ावियों से किस क़दर अंजान है
हम ज़िंदगी-शनास थे सब से जुदा रहे
सुख़न किया जो ख़मोशी से शायरी जागी
मेरी नज़र का मुद्दआ उस के सिवा कुछ भी नहीं
नसब ये है कि वो दुश्मन को कम-नसब न कहे
ज़बाँ का ज़ाविया लफ़्ज़ों की ख़ू समझता है
बे-इंतिहा होना है तो इस ख़ाक के हो जाओ
हमारे दर्द की जानिब इशारा करती हैं