रेख़्ता का इक नया मज्ज़ूब है 'शहपर' रसूल
शोहरत उस के नाम पर इक नंग है बोहतान है
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मेरी नज़र का मुद्दआ उस के सिवा कुछ भी नहीं
फिर से वही हालात हैं इम्काँ भी वही है
चुप गुज़र जाता हूँ हैरान भी हो जाता हूँ
दिल में शोला था सो आँखों में नमी बनता गया
मस्लहत के ज़ावियों से किस क़दर अंजान है
उस की बातें क्या करते हो वो लफ़्ज़ों का बानी था
ज़बाँ का ज़ाविया लफ़्ज़ों की ख़ू समझता है
कोई साया न कोई हम-साया
मुझे भी लम्हा-ए-हिजरत ने कर दिया तक़्सीम
कब चला जाता है 'शहपर' कोई आ के सामने
हँसते हुए हुरूफ़ में जिस को अदा करूँ