उतार लफ़्ज़ों का इक ज़ख़ीरा ग़ज़ल को ताज़ा ख़याल दे दे
ख़ुद अपनी शोहरत पे रश्क आए सुख़न में ऐसा कमाल दे दे
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बहाऊँगा न मैं आँसू न मुस्कराउँगा
मैं ने बख़्श दी तिरी क्यूँ ख़ता तुझे इल्म है
हिज्र बख़्शा कभी विसाल दिया
ये लोग करते हैं मंसूब जो बयाँ तुझ से
वो जो मुमकिन न हो मुमकिन ये बना देता है
ख़ुशी ज़रूर थी 'तैमूर' दिन निकलने की
मिरी तवज्जोह फ़क़त मिरे काम पर रहेगी
एक मंज़िल है एक जादा है
वो कम-सुख़न न था पर बात सोच कर करता
फिर जो करने लगा है तू व'अदा