जो मुझ में तुझ में चला आ रहा है बरसों से
कहीं हयात इसी फ़ासले का नाम न हो
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मैं आसमाँ पे बहुत देर रह नहीं सकता
सभी रिश्ते गुलाबों की तरह ख़ुशबू नहीं देते
मिरी वफ़ाओं का नश्शा उतारने वाला
दुआ करो कि कोई प्यास नज़्र-ए-जाम न हो
ज़रा सा क़तरा कहीं आज अगर उभरता है
मुझे बुझा दे मिरा दौर मुख़्तसर कर दे
दर-ब-दर सर झुकाए फिरता है
अंधेरा ज़ेहन का सम्त-ए-सफ़र जब खोने लगता है
मोहब्बत ना-समझ होती है समझाना ज़रूरी है
उसे समझने का कोई तो रास्ता निकले
तमाम उम्र बड़े सख़्त इम्तिहान में था