किसी को कैसे बताएँ ज़रूरतें अपनी
मदद मिले न मिले आबरू तो जाती है
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कहाँ सवाब कहाँ क्या अज़ाब होता है
सफ़र पे आज वही कश्तियाँ निकलती हैं
मैं इस उमीद पे डूबा कि तू बचा लेगा
हवेलियों में मिरी तर्बियत नहीं होती
मैं आसमाँ पे बहुत देर रह नहीं सकता
दुख अपना अगर हम को बताना नहीं आता
उसी को जीने का हक़ है जो इस ज़माने में
ज़रा सा क़तरा कहीं आज अगर उभरता है
ख़त्म कब हो ये कुछ नहीं मालूम
चराग़ घर का हो महफ़िल का हो कि मंदिर का
तहरीर से वर्ना मिरी क्या हो नहीं सकता
दूसरों को मिटाने की धुन में