दूसरों को मिटाने की धन में
आदमी ख़ुद को यूँ मिटाता है
जैसे चुभने की फ़िक्र में काँटा
शाख़ से ख़ुद ही टूट जाता है
Faiz Ahmad Faiz
Mir Taqi Mir
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Gulzar
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ख़त्म कब हो ये कुछ नहीं मालूम
आते आते मिरा नाम सा रह गया
मोहब्बत ना-समझ होती है समझाना ज़रूरी है
मिटे वो दिल जो तिरे ग़म को ले के चल न सके
शहर मेरा
ज़रा सा क़तरा कहीं आज अगर उभरता है
अपने चेहरे से जो ज़ाहिर है छुपाएँ कैसे
चाँद का ख़्वाब उजालों की नज़र लगता है
किसी ने रख दिए ममता-भरे दो हाथ क्या सर पर
होंटों को रोज़ इक नए दरिया की आरज़ू
क्या बताऊँ कैसा ख़ुद को दर-ब-दर मैं ने किया
वो झूट बोल रहा था बड़े सलीक़े से