अपने चेहरे से जो ज़ाहिर है छुपाएँ कैसे
तेरी मर्ज़ी के मुताबिक़ नज़र आएँ कैसे
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दूर से ही बस दरिया दरिया लगता है
वो ग़म अता किया दिल-ए-दीवाना जल गया
वो मेरे बालों में यूँ उँगलियाँ फिराता था
अपने अंदाज़ का अकेला था
तमाम उम्र बड़े सख़्त इम्तिहान में था
रात तो वक़्त की पाबंद है ढल जाएगी
होंटों को रोज़ इक नए दरिया की आरज़ू
मैं बोलता गया हूँ वो सुनता रहा ख़ामोश
एक नज़्म
जो मुझ में तुझ में चला आ रहा है बरसों से
हमारा अज़्म-ए-सफ़र कब किधर का हो जाए
शहर मेरा