वो ग़म अता किया दिल-ए-दीवाना जल गया
ऐसी भी क्या शराब कि पैमाना जल गया
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अपने चेहरे से जो ज़ाहिर है छुपाएँ कैसे
ख़त्म कब हो ये कुछ नहीं मालूम
शर्तें लगाई जाती नहीं दोस्ती के साथ
ऐसे रिश्ते का भरम रखना कोई खेल नहीं
जहाँ रहेगा वहीं रौशनी लुटाएगा
क्या दुख है समुंदर को बता भी नहीं सकता
मोहब्बत के घरों के कच्चे-पन को ये कहाँ समझें
शाम तक सुब्ह की नज़रों से उतर जाते हैं
क्या बताऊँ कैसा ख़ुद को दर-ब-दर मैं ने किया
खुल के मिलने का सलीक़ा आप को आता नहीं
मिटे वो दिल जो तिरे ग़म को ले के चल न सके
ज़रा सा क़तरा कहीं आज अगर उभरता है