मोहब्बत के घरों के कच्चे-पन को ये कहाँ समझें
इन आँखों को तो बस आता है बरसातें बड़ी करना
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सभी रिश्ते गुलाबों की तरह ख़ुशबू नहीं देते
जो मुझ में तुझ में चला आ रहा है बरसों से
दीवाने की जन्नत
चराग़ घर का हो महफ़िल का हो कि मंदिर का
वो दिन गए कि मोहब्बत थी जान की बाज़ी
तुझे पाने की कोशिश में कुछ इतना खो चुका हूँ मैं
मुसलसल हादसों से बस मुझे इतनी शिकायत है
आज पी लेने दे जी लेने दे मुझ को साक़ी
भरे मकाँ का भी अपना नशा है क्या जाने
सभी का धूप से बचने को सर नहीं होता
यूँ लगे तेरे तज़्किरा से अगर
कहाँ सवाब कहाँ क्या अज़ाब होता है