भरे मकाँ का भी अपना नशा है क्या जाने
शराब-ख़ाने में रातें गुज़ारने वाला
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वो ग़म अता किया दिल-ए-दीवाना जल गया
अपने चेहरे से जो ज़ाहिर है छुपाएँ कैसे
कुछ है कि जो घर दे नहीं पाता है किसी को
मुझे बुझा दे मिरा दौर मुख़्तसर कर दे
वो मुझ को क्या बताना चाहता है
मिरी वफ़ाओं का नश्शा उतारने वाला
वो मेरे घर नहीं आता मैं उस के घर नहीं जाता
मैं बोलता गया हूँ वो सुनता रहा ख़ामोश
दर-ब-दर सर झुकाए फिरता है
हम अपने आप को इक मसअला बना न सके
दूर से ही बस दरिया दरिया लगता है
मैं भी उसे खोने का हुनर सीख न पाया