दर-ब-दर सर झुकाए फिरता है
आरज़ी इक़्तिदार की ख़ातिर
कितना मजबूर हो के जीता है
आदमी इख़्तियार की ख़ातिर
Rahat Indori
Faiz Ahmad Faiz
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तमाम उम्र बड़े सख़्त इम्तिहान में था
तुम्हें ग़मों का समझना अगर न आएगा
तुम मेरी तरफ़ देखना छोड़ो तो बताऊँ
ज़िंदगी तुझ पे अब इल्ज़ाम कोई क्या रक्खे
मेरी तन्हाइयाँ भी शाएर हैं
कहाँ क़तरे की ग़म-ख़्वारी करे है
भला ग़मों से कहाँ हार जाने वाले थे
चलो हम ही पहल कर दें कि हम से बद-गुमाँ क्यूँ हो
अपने अंदाज़ का अकेला था
न जाने क्यूँ मुझे उस से ही ख़ौफ़ लगता है
अदना सा बासी
तिरे ख़याल के हाथों कुछ ऐसा बिखरा हूँ