मेरी तन्हाइयाँ भी शाएर हैं
नज़्र-ए-अशआर-ओ-जाम रहती हैं
अपनी यादों का सिलसिला रोको
मेरी नींदें हराम रहती हैं
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भरे मकाँ का भी अपना नशा है क्या जाने
ये है तो सब के लिए हो ये ज़िद हमारी है
आते आते मिरा नाम सा रह गया
वो दिन गए कि मोहब्बत थी जान की बाज़ी
ख़त्म कब हो ये कुछ नहीं मालूम
भला ग़मों से कहाँ हार जाने वाले थे
इन्हें तो ख़ाक में मिलना ही था कि मेरे थे
मोहब्बत के घरों के कच्चे-पन को ये कहाँ समझें
अक्सर इस तरह आस का दामन
जो मुझ में तुझ में चला आ रहा है बरसों से
दुआ करो कि कोई प्यास नज़्र-ए-जाम न हो
हमारा अज़्म-ए-सफ़र कब किधर का हो जाए