फूल ख़ुद अपने हुस्न में गुम है
उस को कब चाहने की फ़ुर्सत है
आओ काँटों से दोस्ती कर लें
जिन को हमदर्द की ज़रूरत है
Gulzar
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ग़म और होता सुन के गर आते न वो 'वसीम'
मैं उस को आँसुओं से लिख रहा हूँ
हम ये तो नहीं कहते कि हम तुझ से बड़े हैं
मेरा किया था मैं टूटा कि बिखरा रहा
अदना सा बासी
ज़रा सा क़तरा कहीं आज अगर उभरता है
इसी ख़याल से पलकों पे रुक गए आँसू
क्या दुख है समुंदर को बता भी नहीं सकता
हम अपने आप को इक मसअला बना न सके
वो दिन गए कि मोहब्बत थी जान की बाज़ी
रात तो वक़्त की पाबंद है ढल जाएगी
लहू न हो तो क़लम तर्जुमाँ नहीं होता