इसी ख़याल से पलकों पे रुक गए आँसू
तिरी निगाह को शायद सुबूत-ए-ग़म न मिले
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वो मेरे घर नहीं आता मैं उस के घर नहीं जाता
उस ने मेरी राह न देखी और वो रिश्ता तोड़ लिया
भरे मकाँ का भी अपना नशा है क्या जाने
उन से कह दो मुझे ख़ामोश ही रहने दे 'वसीम'
मोहब्बत के घरों के कच्चे-पन को ये कहाँ समझें
तिरे ख़याल के हाथों कुछ ऐसा बिखरा हूँ
चराग़ घर का हो महफ़िल का हो कि मंदिर का
होंटों को रोज़ इक नए दरिया की आरज़ू
शहर मेरा
कोई इशारा दिलासा न कोई व'अदा मगर
वह जानते ही नहीं
'वसीम' देखना मुड़ मुड़ के वो उसी की तरफ़