इन्हें तो ख़ाक में मिलना ही था कि मेरे थे
ये अश्क कौन से ऊँचे घराने वाले थे
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क्या दुख है समुंदर को बता भी नहीं सकता
शाम तक सुब्ह की नज़रों से उतर जाते हैं
जहाँ रहेगा वहीं रौशनी लुटाएगा
मुझे बुझा दे मिरा दौर मुख़्तसर कर दे
कहाँ क़तरे की ग़म-ख़्वारी करे है
ख़्वाब नहीं देखा है
ऐसे रिश्ते का भरम रखना कोई खेल नहीं
कोई इशारा दिलासा न कोई व'अदा मगर
अपनी इस आदत पे ही इक रोज़ मारे जाएँगे
अब भी इक लब में और तबस्सुम में
'वसीम' देखना मुड़ मुड़ के वो उसी की तरफ़
मैं अपने ख़्वाब से बिछड़ा नज़र नहीं आता