'वसीम' देखना मुड़ मुड़ के वो उसी की तरफ़
किसी को छोड़ के जाना भी तो नहीं आया
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ऐसे रिश्ते का भरम रखना कोई खेल नहीं
न पाने से किसी के है न कुछ खोने से मतलब है
तुम्हें ग़मों का समझना अगर न आएगा
तुम मेरी तरफ़ देखना छोड़ो तो बताऊँ
ख़्वाब नहीं देखा है
मैं ने चाहा है तुझे आम से इंसाँ की तरह
मुझे पढ़ता कोई तो कैसे पढ़ता
उन से कह दो मुझे ख़ामोश ही रहने दे 'वसीम'
उसी को जीने का हक़ है जो इस ज़माने में
चाँद का ख़्वाब उजालों की नज़र लगता है
मेरे ग़म को जो अपना बताते रहे
मोहब्बत के घरों के कच्चे-पन को ये कहाँ समझें