मैं ने चाहा है तुझे आम से इंसाँ की तरह
तू मिरा ख़्वाब नहीं है जो बिखर जाएगा
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अंधेरा ज़ेहन का सम्त-ए-सफ़र जब खोने लगता है
चाँद का ख़्वाब उजालों की नज़र लगता है
मुसलसल हादसों से बस मुझे इतनी शिकायत है
किसी ने रख दिए ममता-भरे दो हाथ क्या सर पर
मैं इस उमीद पे डूबा कि तू बचा लेगा
हम ये तो नहीं कहते कि हम तुझ से बड़े हैं
तहरीर से वर्ना मिरी क्या हो नहीं सकता
सब ने मिलाए हाथ यहाँ तीरगी के साथ
मैं भी उसे खोने का हुनर सीख न पाया
शहर मेरा
वह जानते ही नहीं
मैं उस को पूज तो सकता हूँ छू नहीं सकता