अब भी इक लब में और तबस्सुम में
हद्द-ए-फ़ासिल है एक दूरी है
कितनी सदियाँ गुज़र चुकीं लेकिन
ज़िंदगी आज भी अधूरी है
Jaun Eliya
Anwar Masood
Gulzar
Allama Iqbal
Mohsin Naqvi
Rahat Indori
Mir Taqi Mir
Parveen Shakir
Javed Akhtar
Faiz Ahmad Faiz
Habib Jalib
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तुझ को सोचा तो पता हो गया रुस्वाई को
आसमाँ इतनी बुलंदी पे जो इतराता है
ख़्वाब नहीं देखा है
हासिल-ए-इज्तिनाब सोचा है
हादसों की ज़द पे हैं तो मुस्कुराना छोड़ दें
इन्हें तो ख़ाक में मिलना ही था कि मेरे थे
हवेलियों में मिरी तर्बियत नहीं होती
ख़ुशी का साथ मिला भी तो दिल पे बार रहा
दूसरों को मिटाने की धुन में
मिरी वफ़ाओं का नश्शा उतारने वाला
वो पूछता था मिरी आँख भीगने का सबब
दुख अपना अगर हम को बताना नहीं आता