अक्सर इस तरह आस का दामन
दिल के हाथों से छूट जाता है
जैसे होंटों तक आते आते जाम
दफ़अतन गिर के टूट जाता है
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रख देता है ला ला के मुक़ाबिल नए सूरज
हवेलियों में मिरी तर्बियत नहीं होती
वो दिन गए कि मोहब्बत थी जान की बाज़ी
अपने चेहरे से जो ज़ाहिर है छुपाएँ कैसे
तमाम उम्र बड़े सख़्त इम्तिहान में था
कहाँ सवाब कहाँ क्या अज़ाब होता है
सफ़र पे आज वही कश्तियाँ निकलती हैं
मिली हवाओं में उड़ने की वो सज़ा यारो
उसी को जीने का हक़ है जो इस ज़माने में
उदासियों में भी रस्ते निकाल लेता है
तुम्हें ग़मों का समझना अगर न आएगा
हमारा अज़्म-ए-सफ़र कब किधर का हो जाए