हासिल-ए-इज्तिनाब सोचा है
रूठ जाएँगे ख़्वाब सोचा है
सारी दुनिया करेगी एक सवाल
तुम ने कोई जवाब सोचा है
Faiz Ahmad Faiz
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अब भी इक लब में और तबस्सुम में
फूल ख़ुद अपने हुस्न में गुम है
वो ग़म अता किया दिल-ए-दीवाना जल गया
ज़रा सा क़तरा कहीं आज अगर उभरता है
अपने साए को इतना समझाने दे
मैं इस उमीद पे डूबा कि तू बचा लेगा
ये है तो सब के लिए हो ये ज़िद हमारी है
मोहब्बत के घरों के कच्चे-पन को ये कहाँ समझें
तुझे पाने की कोशिश में कुछ इतना खो चुका हूँ मैं
मिरी वफ़ाओं का नश्शा उतारने वाला
कहाँ सवाब कहाँ क्या अज़ाब होता है