होंटों को रोज़ इक नए दरिया की आरज़ू
ले जाएगी ये प्यास की आवारगी कहाँ
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वो पूछता था मिरी आँख भीगने का सबब
दुआ करो कि कोई प्यास नज़्र-ए-जाम न हो
किसी को कैसे बताएँ ज़रूरतें अपनी
दर-ब-दर सर झुकाए फिरता है
मैं उस को आँसुओं से लिख रहा हूँ
ज़रा सा क़तरा कहीं आज अगर उभरता है
वो दिन गए कि मोहब्बत थी जान की बाज़ी
मिटे वो दिल जो तिरे ग़म को ले के चल न सके
हम अपने आप को इक मसअला बना न सके
दूसरों को मिटाने की धुन में
वो ग़म अता किया दिल-ए-दीवाना जल गया
हवेलियों में मिरी तर्बियत नहीं होती