तिरे ख़याल के हाथों कुछ ऐसा बिखरा हूँ
कि जैसे बच्चा किताबें इधर उधर कर दे
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कहाँ क़तरे की ग़म-ख़्वारी करे है
वो दिन गए कि मोहब्बत थी जान की बाज़ी
सफ़र पे आज वही कश्तियाँ निकलती हैं
भला ग़मों से कहाँ हार जाने वाले थे
दर-ब-दर सर झुकाए फिरता है
शहर मेरा
कुछ इतना ख़ौफ़ का मारा हुआ भी प्यार न हो
तुम आ गए हो तो कुछ चाँदनी सी बातें हों
लहू न हो तो क़लम तर्जुमाँ नहीं होता
जहाँ रहेगा वहीं रौशनी लुटाएगा
कुछ है कि जो घर दे नहीं पाता है किसी को
उन से कह दो मुझे ख़ामोश ही रहने दे 'वसीम'