तुम आ गए हो तो कुछ चाँदनी सी बातें हों
ज़मीं पे चाँद कहाँ रोज़ रोज़ उतरता है
Javed Akhtar
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अब भी इक लब में और तबस्सुम में
मिली हवाओं में उड़ने की वो सज़ा यारो
उसी को जीने का हक़ है जो इस ज़माने में
मैं भी उसे खोने का हुनर सीख न पाया
क्या दुख है समुंदर को बता भी नहीं सकता
दुख अपना अगर हम को बताना नहीं आता
हम अपने आप को इक मसअला बना न सके
कहाँ क़तरे की ग़म-ख़्वारी करे है
लहू न हो तो क़लम तर्जुमाँ नहीं होता
वो पूछता था मिरी आँख भीगने का सबब
रंग बे-रंग हों ख़ुशबू का भरोसा जाए
मोहब्बत में बिछड़ने का हुनर सब को नहीं आता