रात तो वक़्त की पाबंद है ढल जाएगी
देखना ये है चराग़ों का सफ़र कितना है
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न जाने क्यूँ मुझे उस से ही ख़ौफ़ लगता है
तहरीर से वर्ना मिरी क्या हो नहीं सकता
दुख अपना अगर हम को बताना नहीं आता
अपने अंदाज़ का अकेला था
मेरा किया था मैं टूटा कि बिखरा रहा
मैं उस को पूज तो सकता हूँ छू नहीं सकता
अदना सा बासी
ज़रा सा क़तरा कहीं आज अगर उभरता है
अपने चेहरे से जो ज़ाहिर है छुपाएँ कैसे
अब भी इक लब में और तबस्सुम में
ये है तो सब के लिए हो ये ज़िद हमारी है