वो झूट बोल रहा था बड़े सलीक़े से
मैं ए'तिबार न करता तो और क्या करता
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रात तो वक़्त की पाबंद है ढल जाएगी
सभी का धूप से बचने को सर नहीं होता
रंग बे-रंग हों ख़ुशबू का भरोसा जाए
ज़रा सा क़तरा कहीं आज अगर उभरता है
झूट के आगे पीछे दरिया चलते हैं
हादसों की ज़द पे हैं तो मुस्कुराना छोड़ दें
वो मेरे बालों में यूँ उँगलियाँ फिराता था
कहाँ क़तरे की ग़म-ख़्वारी करे है
ख़त्म कब हो ये कुछ नहीं मालूम
भला ग़मों से कहाँ हार जाने वाले थे
मिरी वफ़ाओं का नश्शा उतारने वाला
अक्सर इस तरह आस का दामन