ख़ुदा की भी नहीं सुनते हैं ये बुत
भला मैं क्या हूँ मेरी इल्तिजा क्या
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ऐसी तश्बीह फ़क़त हुस्न की बदनामी है
बुतान-ए-हिन्द मिरे दिल में हैं दर आए हुए
पेच दे ज़ुल्फ़-ए-अम्बरीं न कहीं
क्यूँकर करूँ मैं तर्क शराब-ओ-कबाब को
क्यूँ हो न गिर के कासा-ए-तदबीर पाश पाश
जफ़ा-पसंदों को सुनते हैं ना-पसंद हुआ
न होगा हश्र महशर में बपा क्या
ज़ाहिद मुझे न माने-ए-शर्ब-ए-शराब हो
क्या मिला क़ैस को गर्द-ए-रह-ए-सहरा हो कर
ये बात बात पे ज़ाहिद जो टूट जाता है
फ़िराक़ में ख़ून-ए-दिल हैं पीते शराब हम ले के क्या करेंगे