रिंद-मशरब हैं किसी से हमें कुछ काम नहीं
दैर अपना है न काबा न कलीसा अपना
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दश्त-ए-वहशत-ख़ेज़ में उर्यां है 'आग़ा' आप ही
हाथ दोनों मिरी गर्दन में हमाइल कीजे
शराब पीते हैं तो जागते हैं सारी रात
मलते हैं हाथ, हाथ लगेंगे अनार कब
ता-मर्ग मुझ से तर्क न होगी कभी नमाज़
हम न कहते थे कि सौदा ज़ुल्फ़ का अच्छा नहीं
मद्दाह हूँ मैं दिल से मोहम्मद की आल का
जी चाहता है उस बुत-ए-काफ़िर के इश्क़ में
वादा-ए-बादा-ए-अतहर का भरोसा कब तक
तिरे जलाल से ख़ुर्शीद को ज़वाल हुआ
सर्व-क़द लाला-रुख़ ओ ग़ुंचा-दहन याद आया
पाँव फिर होवेंगे और दश्त-ए-मुग़ीलाँ होगा