अजब कुछ इश्क़ की ख़ुश-तर है वादी
कि जिस वादी में है हर वक़्त शादी
Gulzar
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तर्क दे इस्लाम को और कुफ़्र सारा दूर कर
राह में हक़ के अज़ीज़ाँ आप को क़ुर्बां करो
समझ के देखो ऐ आरिफ़ाँ तुम किया है हक़ ने ये भेद कैसा
चमन सूँ दिल के आलम को ख़बर नहिं
अबस क्यूँ उम्र सोने में गँवाया
अक़्ल को छोड़ इश्क़ में आ जा
ग़फ़लत में सोया अब तिलक फिर होवेगा होश्यार कब
ख़यालात रंगीं नहीं बोलते उस को ज्यूँ बास फूलों के रंगों में रहिए
कीता कहीं पुकार ऐ ग़ाफ़िल बिया बिया
यार के दरसन के ख़ातिर जान और तन भूल जा
लगा कर इश्क़ का कजरा नयन को
ला-मकाँ लग आशिक़ाँ के इश्क़ का पर्वाज़ है