देख ऐ मेरी ज़बूँ-हाली पे हँसने वाले
वक़्त की धूप ने किस दर्जा निखारा मुझ को
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क्या कहूँ कितना फ़ुज़ूँ है तेरे दीवाने का दुख
जाने किस रुत में खिलेंगे यहाँ ताबीर के फूल
न जाने उस ने खुले आसमाँ में क्या देखा
वो इक लम्हा सज़ा काटी गई थी जिस की ख़ातिर
दो-चार सितारे ही मिरी आँख में धर जा
ज़िंदगी तू भी हमें वैसे ही इक रोज़ गुज़ार
हर एक शाख़ पे वीरानियाँ मुसल्लत हैं
पलट कर देखने का मुझ में यारा ही नहीं था
बस कि इक लम्स की उम्मीद पे वारे हुए हैं
जुड़े हुए हैं परी-ख़ाने मेरे काग़ज़ से