बस इतना रब्त काफ़ी है मुझे ऐ भूलने वाले
तिरी सोई हुई आँखों में अक्सर जागता हूँ मैं
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सुपुर्द-ए-आब यूँ ही तो नहीं करता हूँ ख़ाक अपनी
न जाने उस ने खुले आसमाँ में क्या देखा
क्या कहूँ कितना फ़ुज़ूँ है तेरे दीवाने का दुख
देख ऐ मेरी ज़बूँ-हाली पे हँसने वाले
इसी बाइस मैं अपना निस्फ़ रखता हूँ अँधेरे में
किस की तनवीर से जल उठ्ठे बसीरत के चराग़
हर एक शाख़ पे वीरानियाँ मुसल्लत हैं
किश्त-ए-एहसास में थोड़ा सा मिला लेंगे तुझे
ज़िंदगी हम से तिरी आँख-मिचोली कब तक
ऐसी ही बे-चेहरगी छाई हुई है शहर में
इज़्तिराब ऐसा हुआ दिल का सहारा मुझ को
कहाँ कहाँ से सुनाऊँ तुम्हें फ़साना-ए-शब