हर एक शाख़ पे वीरानियाँ मुसल्लत हैं
बदन-दरख़्त भी गोया है आशियाना-ए-शब
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बस इतना रब्त काफ़ी है मुझे ऐ भूलने वाले
इसी बाइस मैं अपना निस्फ़ रखता हूँ अँधेरे में
बस कि इक लम्स की उम्मीद पे वारे हुए हैं
दिखाती है जो ये दुनिया वो बैठा देखता हूँ मैं
सुपुर्द-ए-आब यूँ ही तो नहीं करता हूँ ख़ाक अपनी
देख ऐ मेरी ज़बूँ-हाली पे हँसने वाले
ये ख़ाकी पैरहन इक इस्म की बंदिश में रहता है
क्या कहूँ कितना फ़ुज़ूँ है तेरे दीवाने का दुख
क्या कहूँ कितनी अज़िय्यत से निकाली गई शब
वो इक लम्हा सज़ा काटी गई थी जिस की ख़ातिर
जाने किस रुत में खिलेंगे यहाँ ताबीर के फूल
ख़त्म होता ही नहीं सिलसिला तन्हाई का