वो इक लम्हा सज़ा काटी गई थी जिस की ख़ातिर
वो लम्हा तो अभी हम ने गुज़ारा ही नहीं था
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इसी बाइस मैं अपना निस्फ़ रखता हूँ अँधेरे में
पलट कर देखने का मुझ में यारा ही नहीं था
ज़िंदगी तू भी हमें वैसे ही इक रोज़ गुज़ार
ये ख़ाकी पैरहन इक इस्म की बंदिश में रहता है
ऐसी ही बे-चेहरगी छाई हुई है शहर में
बस इतना रब्त काफ़ी है मुझे ऐ भूलने वाले
ज़िंदगी हम से तिरी आँख-मिचोली कब तक
जुड़े हुए हैं परी-ख़ाने मेरे काग़ज़ से
देख ऐ मेरी ज़बूँ-हाली पे हँसने वाले
बे-अमाँ हूँ इन दिनों मैं दर-ब-दर फिरता हूँ मैं
किस की तनवीर से जल उठ्ठे बसीरत के चराग़
फ़ना हुआ तो मैं तार-ए-नफ़स में लौट आया