ज़िंदगी हम से तिरी आँख-मिचोली कब तक
इक न इक रोज़ किसी मोड़ पे आ लेंगे तुझे
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क्या कहूँ कितना फ़ुज़ूँ है तेरे दीवाने का दुख
फ़ना हुआ तो मैं तार-ए-नफ़स में लौट आया
ऐसी ही बे-चेहरगी छाई हुई है शहर में
इसी बाइस मैं अपना निस्फ़ रखता हूँ अँधेरे में
बस इतना रब्त काफ़ी है मुझे ऐ भूलने वाले
जुड़े हुए हैं परी-ख़ाने मेरे काग़ज़ से
रक़म करूँ भी तो कैसे मैं दास्तान-ए-वफ़ा
बस कि इक लम्स की उम्मीद पे वारे हुए हैं
हर एक शाख़ पे वीरानियाँ मुसल्लत हैं
ज़िंदगी तू भी हमें वैसे ही इक रोज़ गुज़ार
बे-अमाँ हूँ इन दिनों मैं दर-ब-दर फिरता हूँ मैं