ख़त्म होता ही नहीं सिलसिला तन्हाई का
जाने किस दर्जा मसाफ़त में है ढाली गई शब
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नित-नए नक़्श से बातिन को सजाता हुआ मैं
ऐसी ही बे-चेहरगी छाई हुई है शहर में
प्यास हर ज़र्रा-ए-सहरा की बुझाई गई है
बस इतना रब्त काफ़ी है मुझे ऐ भूलने वाले
देख ऐ मेरी ज़बूँ-हाली पे हँसने वाले
क्या कहूँ कितनी अज़िय्यत से निकाली गई शब
सुपुर्द-ए-आब यूँ ही तो नहीं करता हूँ ख़ाक अपनी
किस की तनवीर से जल उठ्ठे बसीरत के चराग़
न जाने उस ने खुले आसमाँ में क्या देखा
बे-अमाँ हूँ इन दिनों मैं दर-ब-दर फिरता हूँ मैं
बस कि इक लम्स की उम्मीद पे वारे हुए हैं
ये ख़ाकी पैरहन इक इस्म की बंदिश में रहता है