न जाने उस ने खुले आसमाँ में क्या देखा
परिंदा फिर से जहान-ए-क़फ़स में लौट आया
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वो इक लम्हा सज़ा काटी गई थी जिस की ख़ातिर
बे-अमाँ हूँ इन दिनों मैं दर-ब-दर फिरता हूँ मैं
जुड़े हुए हैं परी-ख़ाने मेरे काग़ज़ से
इसी बाइस मैं अपना निस्फ़ रखता हूँ अँधेरे में
देख ऐ मेरी ज़बूँ-हाली पे हँसने वाले
प्यास हर ज़र्रा-ए-सहरा की बुझाई गई है
नित-नए नक़्श से बातिन को सजाता हुआ मैं
क्या कहूँ कितना फ़ुज़ूँ है तेरे दीवाने का दुख
रक़म करूँ भी तो कैसे मैं दास्तान-ए-वफ़ा
किस की तनवीर से जल उठ्ठे बसीरत के चराग़
दिखाती है जो ये दुनिया वो बैठा देखता हूँ मैं