तशवीश

मुझ को तशवीश है कुछ रोज़ से मेरे महबूब

मेरे अंदाज़-ए-तफ़क्कुर की ये पुर-ख़ार रविश

तेरी हस्सास तबीअत को न कर दे मजरूह

और तू समझे कि नहीं तुझ में वो पहली सी कशिश

अब भी जल्वों में है तख़्लीक़-ए-मोहब्बत की सकत

तिरी बातों में अभी तक है फ़ुसूँ का अंदाज़

आरिज़ ओ लब पे तबस्सुम का ख़िराम-ए-मदहोश

अब भी देता है तख़य्युल को पयाम-ए-परवाज़

फिर भी एहसास-ए-मसर्रत का न हो ज़ेहन को होश

गिन तो सकता हूँ, शब-ए-हिज्र में तारों को मगर

ज़ेहन आवारा ख़यालात से भर जाता है

अश्क-ए-मजबूर बहाऊँ ग़म-ए-जानाँ में मगर

सिलसिला मेरे इन अश्कों का बिखर जाता है

मुझ को तशवीश है कुछ रोज़ से मेरे महबूब

मिरे अंदाज़-ए-तकल्लुम की ये बेगाना-रवी

तेरी हस्सास तबीअत को न कर दे मजरूह

और तस्कीं न हो फिर हुस्न-ए-ख़ुद-आरा को कभी

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