आ बसे कितने नए लोग मकान-ए-जाँ में
बाम-ओ-दर पर है मगर नाम उसी का लिक्खा
Gulzar
Jaun Eliya
Rahat Indori
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Faiz Ahmad Faiz
Anwar Masood
Mir Taqi Mir
Allama Iqbal
Wasi Shah
Ahmad Faraz
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निदा-ए-तख़्लीक़
ग़म से बिखरा न पाएमाल हुआ
दिल वो किश्त-ए-आरज़ू था जिस की पैमाइश न की
किसे बताऊँ कि वहशत का फ़ाएदा क्या है
उसी ख़ुश-नवा में हैं सब हुनर मुझे पहले था न क़यास भी
बिछ्ड़ें तो शहर भर में किसी को पता न हो
ख़्वाब ठहरा सर-ए-मंज़िल न तह-ए-बाम कभी
रश्क अपनों को यही है हम ने जो चाहा मिला
बे-इल्तिफ़ाती
वहशत-ए-जाँ को पयाम-ए-निगह-ए-नाज़ तो दो
उम्मीद ओ यास ने क्या क्या न गुल खिलाए हैं
आरज़ू थी कि तिरा दहर भी शोहरा होवे