इतना रोया हूँ ग़म-ए-दोस्त ज़रा सा हँस कर
मुस्कुराते हुए लम्हात से जी डरता है
Allama Iqbal
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मुझ को कोई भी सिला मिलने में दुश्वारी न थी
वो भी कहता था कि उस ग़म का मुदावा ही नहीं
जादू-ए-ख़्वाब में कुछ ऐसे गिरफ़्तार हुए
सरा-ए-दिल में जगह दे तो काट लूँ इक रात
तशवीश
यही तो ग़म है वो शाइ'र न वो सियाना था
किसे बताऊँ कि वहशत का फ़ाएदा क्या है
जो भी कहना है कहो साफ़ शिकायत ही सही
सुब्ह-ए-तरब तो मस्त-ओ-ग़ज़ल-ख़्वाँ गुज़र गई
बे-इल्तिफ़ाती
रूह का लम्बा सफ़र है एक भी इंसाँ का क़ुर्ब
कोई मौसम हो यही सोच के जी लेते हैं