'इक़बाल' की नवा से मुशर्रफ़ है गो 'नईम'
उर्दू के सर पे 'मीर' की ग़ज़लों का ताज है
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आरज़ू थी कि तिरा दहर भी शोहरा होवे
कू-ए-रुसवाई से उठ कर दार तक तन्हा गया
यही तो ग़म है वो शाइ'र न वो सियाना था
ऐ सबा मैं भी था आशुफ़्ता-सरों में यकता
वो कज-निगाह न वो कज-शिआ'र है तन्हा
तशवीश
जादू-ए-ख़्वाब में कुछ ऐसे गिरफ़्तार हुए
मौजा-ए-अश्क से भीगी न कभी नोक-ए-क़लम
जहाँ दिखाई न देता था एक टीला भी
इश्क़ के बाब में किरदार हूँ दीवाने का
जो मेरे दश्त-ए-जुनूँ में था फ़र्क़-ए-रू-ए-बहार
उसी ख़ुश-नवा में हैं सब हुनर मुझे पहले था न क़यास भी