मौजा-ए-अश्क से भीगी न कभी नोक-ए-क़लम
वो अना थी कि कभी दर्द न जी का लिक्खा
Mohsin Naqvi
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Gulzar
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दिलों में आग लगाओ नवा-कशी ही करो
पय-ब-पय तलवार चलती है यहाँ आफ़ात की
गया वो ख़्वाब-ए-हक़ीक़त को रू-ब-रू कर के
किसी हबीब ने लफ़्ज़ों का हार भेजा है
जब्र-ए-शही का सिर्फ़ बग़ावत इलाज है
क़सीदा तुझ से ग़ज़ल तुझ से मर्सिया तुझ से
क़ल्ब-ओ-जाँ में हुस्न की गहराइयाँ रह जाएँगी
सच तो ये कि अभी दिल को सुकूँ है लेकिन
लुत्फ़-ए-आग़ाज़ मिला लज़्ज़त-ए-अंजाम के बा'द
इतना रोया हूँ ग़म-ए-दोस्त ज़रा सा हँस कर
ख़ेमा-ए-याद
मैं अपनी रूह में उस को बसा चुका इतना