मैं एक बाब था अफ़साना-ए-वफ़ा का मगर
तुम्हारी बज़्म से उट्ठा तो इक किताब बना
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बिछ्ड़ें तो शहर भर में किसी को पता न हो
जुरअत कहाँ कि अपना पता तक बता सकूँ
कोई मौसम हो यही सोच के जी लेते हैं
सरा-ए-दिल में जगह दे तो काट लूँ इक रात
एक दरिया पार कर के आ गया हूँ उस के पास
ग़म से बिखरा न पाएमाल हुआ
वो कज-निगाह न वो कज-शिआ'र है तन्हा
जब्र-ए-शही का सिर्फ़ बग़ावत इलाज है
बयान-ए-शौक़ बना हर्फ़-ए-इज़्तिराब बना
एक भी हर्फ़ न था ख़ुश-ख़बरी का लिक्खा
ख़याल-ओ-ख़्वाब में कब तक ये गुफ़्तुगू होगी