कोई मौसम हो यही सोच के जी लेते हैं
इक न इक रोज़ शजर ग़म का हरा तो होगा
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ख़ुर्शीद की निगाह से शबनम को आस क्या
सरा-ए-दिल में जगह दे तो काट लूँ इक रात
आँखों में बस रहा है अदा के बग़ैर भी
वो जो दर्द था तिरे इश्क़ का वही हर्फ़ हर्फ़-ए-सुख़न में है
जो भी कहना है कहो साफ़ शिकायत ही सही
गर्द-ए-शोहरत को भी दामन से लिपटने न दिया
न मेरे ख़्वाब को पैकर न ख़द्द-ओ-ख़ाल दिया
पय-ब-पय तलवार चलती है यहाँ आफ़ात की
गया वो ख़्वाब-ए-हक़ीक़त को रू-ब-रू कर के
ख़ैर से दिल को तिरी याद से कुछ काम तो है
कम नहीं ऐ दिल-ए-बेताब मता-ए-उम्मीद
पैकर-ए-नाज़ पे जब मौज-ए-हया चलती थी