न मेरे ख़्वाब को पैकर न ख़द्द-ओ-ख़ाल दिया

न मेरे ख़्वाब को पैकर न ख़द्द-ओ-ख़ाल दिया

बहुत दिया तो मुझे मौक़ा-ए-विसाल दिया

मिला न रूह न दिल का कोई हिसाब मगर

ये कार-ए-ज़ीस्त किसी तौर से सँभाल दिया

तमाम-उम्र की बेचैनियों से कुछ न हुआ

मिरे जुनूँ को ख़िरद कह के उस ने टाल दिया

किसी निगाह ने उम्मीद को दिया चेहरा

किसी शबीह ने सब से हसीं ख़याल दिया

मिरे उयूब की तस्वीर इस तरह खींची

मिरे हुनर को पस-ए-पुश्त उस ने डाल दिया

कई ख़याल जो आवारा-ख़ू थे सरकश थे

उन्हें भी शे'र के साँचे में हम ने ढाल दिया

उसी ने सर पे बिठाया था जिस ने आज 'नईम'

समझ के पाँव का काँटा मुझे निकाल दिया

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