किसी ने डूबती सुब्हों तड़पती शामों को
ग़ज़ल के जाम में शब का ख़ुमार भेजा है
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किसे बताऊँ कि वहशत का फ़ाएदा क्या है
बिछ्ड़ें तो शहर भर में किसी को पता न हो
कम नहीं ऐ दिल-ए-बेताब मता-ए-उम्मीद
क़सीदा तुझ से ग़ज़ल तुझ से मर्सिया तुझ से
दिलों में आग लगाओ नवा-कशी ही करो
जो मेरे दश्त-ए-जुनूँ में था फ़र्क़-ए-रू-ए-बहार
एक दरिया पार कर के आ गया हूँ उस के पास
इतना रोया हूँ ग़म-ए-दोस्त ज़रा सा हँस कर
ख़ल्वत-ए-उम्मीद में रौशन है अब तक वो चराग़
मुझ को कोई भी सिला मिलने में दुश्वारी न थी
ख़याल-ओ-ख़्वाब में कब तक ये गुफ़्तुगू होगी
किसी हबीब ने लफ़्ज़ों का हार भेजा है